कल्पना सरोज | Kalpana Saroj

₹2 से दो हजार करोड रुपए तक की यात्रा।

चल पड़ा जो राह में,
मंजिल समझ लो पास है।
रुक गया घबरा के,
जो जिंदा नहीं बोला है।।

कल्पना सरोज की कहानी थोड़ी फिल्मी है लेकिन 100% सच्ची है। कल्पना सरोज की कहानी उस दलित पिछड़े समाज के लड़की की कहानी है, जिसे जन्म से ही अनेक कठिनाइयों से जूझना पड़ा। समाज की अनेक उपेक्षा सहनी पड़ी। बाल विवाह का आघात झेलना पडा, ससुराल वालों का अत्याचार सहना पड़ा और ₹2 रोजाना से नौकरी तक करनी पड़ी। एक समय खुद के जीवन को खत्म करने के लिए उन्होंने जहर तक पी लिया। लेकिन आज वही कल्पना सरोज दो हजार करोड़ की कंपनी की मालकिन है।

कल्पना सरोज का जन्म 1961 में महाराष्ट्र के अकोला जिले के छोटे से गांव बरखेड़ा के एक दलित परिवार में हुआ। कल्पना के पिता हवलदार थे और उनका वेतन मात्र ₹3000 था जिसमें कल्पना के दो भाई, तीन बहने, दादा-दादी, चाचा-चाची के पूरे परिवार का खर्च चलता था। उनका पूरा परिवार पुलिस क्वार्टर में रहता था। कल्पना पास के ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ने जाया करती थी। वह पढ़ने में होशियार थी लेकिन स्कूल में उन्हें और बाकी दलित बच्चों को सबसे अलग बिठाया जाता था और उनसे बेहद ही हीन और उपेक्षा भरा व्यवहार किया जाता था। कल्पना जी अपने बचपन के बारे में बताते हुए कहती है। हमारे गांव में बिजली नहीं थी, कोई सुख सुविधाएं नहीं थी बचपन में स्कूल से लौटते वक्त गोबर उठाना, खेत में काम करना और चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियां चुनना पड़ता था। कल्पना सरोज जिस समाज से हैं, वहां लड़कियों को जहर की पुड़िया की संज्ञा दी जाती थी। इसलिए उनके समाज में लड़कियों की शादी जल्दी करके परिवार का बोझ कम करने की कुप्रथा प्रचलित थी। कल्पना सरोज 12 साल की हुई सातवीं कक्षा में पढ़ रही थी तभी समाज के दबाव में आकर उनके पिता ने कल्पना की पढ़ाई छुड़वा दी और उसे उम्र में बहुत बड़े लड़के से बाल विवाह करवा दिया गया। शादी के बाद वह मुंबई चली गई जहां एक और कठोर जीवन और यातनाएं उनका पहले से ही इंतजार कर रही थी।

कल्पना सरोज ने एक इंटरव्यू में बताया था कि “मेरे ससुराल वाले मुझे खाना नहीं देते थे, बालों को पकड़कर घसीट कर कभी मुझे मारते पीटते थे जानवरों से भी बदतर व्यवहार करते थे कभी खाने में नमक के बहाने से तो कभी कपड़े साफ नहीं भूलने के बहाने से हर कोई अपना हाथ मुझ पर साफ करता था”। यह सब सहते सहते कल्पना जी स्थिति इतनी बुरी हो चुकी थी कि जब 6 महीने बाद उनके पिता उनसे मिलने आए तो अपनी बेटी को देखकर वह हताश हो गए और उन्हें वापस अपने गांव ले आए। यहां उनकी मुश्किलें खत्म नहीं हुई जब शादी-शुदा लड़की मायके आ जाती है तो समाज से अलग ही नजर से देखता है। पड़ोस के लोग उन पर ताने कसते हैं और तरह-तरह की बातें करते हैं। पिता को दोबारा पढ़ाने की कोशिश की लेकिन इतनी छोटी उम्र में इतना दुख झेल चुकी कल्पना का मन ही नहीं लगता था। हर तरफ से मायूस कल्पना को लगने लगा कि जीवन जीना बेहद ही मुश्किल काम है और मर जाना आसान है। उन्होंने जहर की बोतल खरीदी और चुपके से अपनी बुआ के घर चली गई। बुआ जब चाय बना रही थी तभी कल्पना ने जहर की बोतल पी ली। बुआ जब चाय लेकर वापस आई तो चाय के कप छूटकर जमीन पर गिर गई उन्होंने देखा कि कल्पना के मुंह से झाग निकल रहा है। अफरातफरी में डॉक्टरों की मदद ली गई कल्पना का बचना मुश्किल लग रहा था। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था और उनकी जान बच गई इसके बाद उनका जीवन बदल गया और जिंदगी ने मुझे जीने का एक और मौका दिया।

मुश्किलों से भाग जाना आसान होता है,
हर पहलू जिंदगी का इंतिहान होता है।
डरने वाले को मिलता नहीं कुछ जिंदगी में,
जीतने वालों के कदम में जहान होता है।।

कल्पना कहती है कि जब मैं बच गई तो सोचा जब कुछ किए बिना मारा जा सकता है तो इससे अच्छा है कुछ करके जिया जाए। उन्हें अपने अंदर एक नई ऊर्जा महसूस की। कल्पना अपने जीवन में कुछ करना चाहती थी इस घटना के बाद उन्होंने कई जगह नौकरी पाने की कोशिश की पर उनकी छोटी उम्र और शिक्षा के वजह से कोई भी काम नहीं मिल सका इसलिए उन्होंने काम की तलाश में मुंबई जाने का फैसला किया। 16 वर्ष की उम्र में कल्पना अपने रिश्तेदारों के यहां आ गई कल्पना सिलाई करना जानती थी इसलिए उनके रिश्तेदार कपड़े के मिल में काम दिलाने के लिए ले गए। उस दिन को याद करके कल्पना जी बताती है कि मैं मशीन चलाना अच्छे से जानती थी। पर ना जाने उस दिन मुझसे मशीन ही नहीं चला फिर मुझे धागे कातने का काम दे दिया गया। जिसके मुझे रोजाना ₹2 मिलते थे उन्होंने कुछ दिनों तक वहां धागे कातने का काम किया और जल्दी ही उन्होंने अपना आत्मविश्वास पा लिया और मशीन भी चलाने लगी जिसमें उन्हें महीने में ₹225 मिलने लगे इसी बीच किन्ही कारणों से कल्पना के पिता की नौकरी चली गई और अब कल्पना का पूरा परिवार मुंबई आकर उनके साथ रहने लगा। धीरे-धीरे सब ठीक हो रहा था तभी एक ऐसी घटना घटी जिससे उन्हें झकझोर कर रख दिया। उनकी बहन की एक गंभीर बीमारी से मौत हो गई। तब कल्पना को यह एहसास हुआ कि दुनिया में सबसे बड़ी कोई बीमारी है तो वह है गरीबी। उस दिन से उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने जीवन में इस बीमारी को हमेशा के लिए खत्म कर देंगे उन्होंने अपने घर में कुछ सिलाई मशीन लगवा ली और अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर दिन में 16-16 घंटे काम करने लगी। उनकी कड़ी मेहनत की ये आदत आज भी बरकरार है सिलाई के काम से कुछ पैसे आ जाते थे। पर यह पैसे काफी नहीं थे इसलिए उन्होंने बिजनेस करने का सोचा। उनके इलाके में एक आदमी था जो लोन दिलवाने का काम करता था उस आदमी ने कहा अगर ₹50000 का लोन चाहिए तो उसमें से ₹10000 इधर-उधर रिश्वत खिलाने पड़ेंगे। कल्पना इसके लिए तैयार नहीं हुई फिर उन्होंने रिश्वतखोरी को निपटने के लिए कुछ लोगों का एक संगठन बनाया जो लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में सही जानकारी देता था और लोगों को लोन दिलवाने में मदद करता था। धीरे-धीरे यह संगठन काफी मशहूर हो गया और समाज के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने के कारण कल्पना सरोज की पहचान कई बड़े लोगों से हो गई। उन्होंने खुद महाराष्ट्र सरकार द्वारा चलाई जा रही ज्योति-बा-फूले योजना के अंतर्गत ₹50000 का कर्ज लिया और 22 साल की उम्र में फर्नीचर का बिजनेस शुरू किया। इसमें उन्हें काफी सफलता मिली। इसके बाद कल्पना सरोज ने उन पैसों से एक ब्यूटी पार्लर खोला। इसके बाद कल्पना ने एक स्टील फर्नीचर व्यापारी से दुबारा शादी की जिससे उनकी एक पुत्र और एक पुत्री है।

1979 में पति का देहांत हो गया। अब परिवार का बोझ दुबारा कल्पना के कंधों पर आ गया। एक दिन एक व्यापारी अपनी जमीन ढाई लाख रुपए(₹250000) में बेचने के लिए कल्पना के पास आया लेकिन उसके पास जमीन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उस व्यापारी ने कहा आप ₹100000 मुझे अभी दे दे बाकी के बाद में दे दीजिएगा। कल्पना ने अपनी जमा पूंजी और कहीं से उधार मांग कर ₹100000 उसे दे दी लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि जमीन विवादास्पद है और वहां कुछ बनाया नहीं जा सकता। उन्होंने 2 साल तक भागदौड़ करके उस जमीन से भी सभी मामले सुलझा लिए और ढाई लाख की कीमत वाली वह जमीन रातों-रात 5000000 की बन गई। एक औरत का इतनी महंगी जमीन का मालिक बनना इलाकों के गुंडों को पचा नहीं और उन्होंने कल्पना की हत्या करने की साजिश बना ली। पर यह उनके अच्छे कर्मों का ही फल था कि हत्या के पहले किसी ने उन्हें इस साजिश के बारे में बता दिया था। पुलिस की मदद से वे गुंडे पकड़ लिए गए इस घटना के बाद पुलिस ने कल्पना सरोज को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही तो कल्पना सरोज ने कहा कि मुझे पूरी सुरक्षा नहीं एक लाइसेंस रिवाल्वर दे दीजिए। फिर कल्पना सरोज के पुलिस ने लाइसेंसी रिवाल्वर दे दिया। कल्पना सरोज का कहना था कि मैं बाबा साहब अंबेडकर के इस बात में विश्वास रखती हूं कि 100 दिन भेड़ की तरह जीने से अच्छा है एक दिन शेर की तरह जियो। आत्महत्या के प्रयास के दौरान वह मौत को इतने करीब से देख चुकी थी कि उनके अंदर से मरने का डर कब का खत्म हो चुका था। उन्होंने अपने दुश्मनों को साफ चेतावनी दी थी कि इससे पहले कि तू मुझे मारो, जान लो कि मेरी रिवाल्वर में छह गोलियां है छठी गोली खत्म होने के बाद ही मुझे कोई मार सकता है

यह मामला शांत होने के बाद उन्होंने जमीन पर संरचना करने की सोची पर इसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। इसलिए उन्होंने एक व्यापारी से पार्टनरशिप कर ली उन्होंने कहा जमीन मेरी और संरचना आपकी उन्होंने मुनाफे में 65% अपना शेयर एग्रीमेंट करके 4:30 करोड रुपए कमाए।

इसके बाद एक कंपनी थी कमानी ट्यूब्स जो 1985 में लेबर यूनियन और मैनेजमेंट में विवाद होने के कारण बंद कर दी गई। 1988 में सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद ऐतिहासिक फैसले में कंपनी का मालिकाना हक वर्कर्स को दे दिया गया इसे ठीक से नहीं चला पाए और कंपनी पर करोड़ों का कर्ज आता चला गया। इस स्थिति से निपटने के लिए कमानी ट्यूब्स कंपनी के वर्कर्स सन 2000 में कल्पना सरोज के पास गए उन्होंने सुन रखा था अगर कल्पना सरोज मिट्टी को भी हाथ लगा दे तो मिट्टी भी सोना बन जाती है। कल्पना को जब यह बताया गया कि कंपनी 116 करोड़ के कर्ज में डूबी है और उस पर 140 लिटिगेशन के मामले हैं तो उन्होंने कंपनी मैं हाथ डालने से मना कर दिया। पर जब उन्हें बताया गया कि इस कंपनी पर साडे तीन हजार मजदूरों और उनके परिवारों का भविष्य टिका है और बहुत से वर्कर्स भूख से मर रहे हैं, भीख मांग रहे हैं। तो वह कंपनी की मदद करने के लिए तैयार हो गई बोर्ड में आते ही उन्होंने सबसे पहले 10 लोगों की एक टीम बनाई जो सभी अलग-अलग क्षेत्र में एक्सपोर्ट थे फिर उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार कराई, किसका कितना पैसा बकाया है। उसमें बैंक के, गवर्नमेंट के, उद्योगपतियों के पैसे थे। कंपनी पर जो उधर था उसमें से आधे से ज्यादा का कर्ज पेनाल्टी और इंटरेस्ट था। कल्पना सरोज के तत्कालीन वित्त मंत्री से मिलने गई और उन्हें बताया कि कमानी इंडस्ट्रीज के पास कुछ है ही नहीं अगर आप इंटरेस्ट और पेनाल्टी माफ करा दें तो हम क्रेडिटर्स को उनका मूल धन वापस कर सकते हैं और अगर ऐसा ना हुआ तो कोट कंपनी का लिक्विडेशन करने ही वाला है। यदि ऐसा हुआ तो क्रेडिटर्स को एक भी रुपया वापस नहीं मिलेगा वित्त मंत्री ने बैंक को कल्पना के साथ मीटिंग का निर्देश दिया। मीटिंग में बैंक कल्पना सरोज से प्रभावित हुए और ना सिर्फ पेनाल्टी और इंटरेस्ट माफ किए बल्कि एक लेडी इंटरप्रेन्योर और द्वारा जेनुइन पार्ट्स को सराहते हुए कर्ज़ मूलधन में से भी 25% कम कर दिए। कल्पना सरोज सन 2000 से कंपनी के लिए संघर्ष कर रही थी सन 2006 में कोर्ट ने उन्हें कमानी इंडस्ट्रीज का मालिक बना दिया कल्पना सरोज को 7 साल में बैंक के कर्ज चुकाने का निर्देश दिए गए जो कि उन्होंने 1 साल में ही चुका दिया। इसके बाद उन्होंने कंपनी को मॉडर्नाइज करना शुरू किया और उसे एक बीमार कंपनी से बाहर निकालकर प्रॉफिटेबल कंपनी बना दिया।

यह कल्पना सरोज जी का ही कमाल है कि आज उनकी कंपनी कमानी ट्यूब्स की कीमत 2000 करोड़ के आसपास है। इस महान उपलब्धि के लिए उन्हें 2013 में पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा गया है। कोई बैंकिंग ग्राउंड ना होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल किया है कल्पना जी की यह कहानी कल्पना से भी परे है। आज हम चाहे जैसे भी हो पढ़े-लिखे हो अनपढ़ हूं अमीर गरीब हो इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता हम अपनी सोच से अपनी मेहनत से अपनी किस्मत बदल सकते हैं हम असंभव को भी संभव बना सकते हैं और अपने बड़े से बड़े सपनों को भी पूरा कर सकते हैं।

आपके जज्बे को सलाम, आपकी हिम्मत को सलाम, आपके जिंदादिली को सलाम, आप ने जो कर दिखाया जो बहुत से लोग सोचने तक की हिम्मत नहीं करते।

———————–By Alpana

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